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Showing posts from October, 2010

रेत का महल

कोमल हाथों का स्पर्श मुलायम उँगलियों की थपकी मन की चंद  भावनाओं से निर्मित हुआ एक महल रेत का महल निर्माता प्रफुल्लित प्रकृति गंभीर उसे ज्ञान है सत्य का नश्वरता का कितना क्षणिक नहीं सह सकता एक थपेड़ा, एक झोंका भरभरा जाता है सिद्ध करता हुआ सत्य चिरंतन सत्य.

पैसे की दौड़

अक्सर वह मुझसे कहता है कि 'आप आदर्शवादी हैं जो यह कहते हैं की पैसा ही सब कुछ नहीं है जबकि मेरा मानना है की जिन्दगी में पैसा नहीं तो कुछ नहीं. जैसा आप बनना चाहते हैं वैसा होना अच्छी बात है, पर वैसा बना नहीं जा सकता. यदि बनने की कोशिश की जाये तो बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा. इसीलिए 'Be प्रक्टिकल' . मैं जब उसकी बात पर विचार करता हूँ तो लगता है कि उसकी ऐसी सोच इस वर्तमान वयवस्था की देन है. ऐसी सोच रखना उसकी मजबूरी है. इसके लिए मैं उसे गलत नहीं ठहरा सकता हूँ. हमारे समाज में उसके जैसी सोच रखने वाले ही लोगों की संख्या सर्वाधिक है. पैसा.. पैसा और पैसा इसी एक सूत्र के पीछे लोग अपनी सारी प्रतिभा, सारा कौशल, सारा प्रय्तन न्योछावर करने पर उतारू हैं. इसके लिए सारा सिद्धांत सारी नीति, सारी मानवता ग़र्क करने पर उद्धत हैं. आखिर कितना पैसा कमा कर इन्सान सुखी रह सकता है? क्या इसकी कोई सीमा है? शायद नहीं. यह ऐसी दौड़ है जिसकी कोई मंजिल नहीं. पैसे की भूख ऐसी भूख है जो कभी शांत नहीं हो सकती. इसीलिए इससे संतुष्टि अथवा तृप्ति मिलना असंभव है. फिर भी लोग भागे जा रहे हैं एक दुसरे की देखा-देखी. एक अन

चौराहे

चौराहे कितने   चौराहे   हैं राह में संभलना पड़ता है,  लुभावनी हैं हर दिशाएं  संभलना पड़ता है.  भ्रमित हो जाता है राही किधर जाये किधर नहीं, शंकित हो उठता है मन कौन गलत कौन सही, अंतर्मन से पथ को  परखना पड़ता है. मित्र भी मिलते हैं राह में कुछ वैरी भी, अपने भी मिलते हैं साथ में कुछ गैर भी, सबके साथ रिश्ता  निभाना पड़ता है. गिरते मूल्यों के दौर में, इस तेज़ और अंधी दौड़ में, हँसना है मुश्किल पर हँसना पड़ता है. इनकी सुनी कुछ उनकी सुनी कुछ कुटुंब की कुछ समाज की  कुछ था अपना भी अस्तित्व पर मिटाना पड़ता है. स्वाभाविक कभी औपचारिक  आधुनिक कभी पारंपरिक कभी दिखावे के प्रेम से बहलना पड़ता है. छांव भी  मिलते हैं, धुप ही नहीं शूल भी मिलते हैं, फूल ही नहीं आग के दरिया से गुजरना पड़ता है. वो राही क्या जो मुश्किलों से डर जाये बाधाओं के डर से सफ़र छोड़ जाये लक्ष्य कठिन है तो क्या उसे पाना पड़ता है. कितने चौराहे  हैं राह में संभलना पड़ता है.

सिद्धान्तहीन राजनीति

राजतांत्रिक  व्यवस्था में लोकमत की उपेक्षा से अकुलाए लोगों ने प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था को जन्म दिया ताकि लोक-जरूरतों के अनुरूप शासन की नीतियाँ निर्धारित की जाएँ. इस व्वयस्था में लोगों को यह अधिकार मिला की वे स्वयं अपना प्रतिनिधि चुनें जो उनकी आवाज को नीति-निर्धारकों तक पहुँचाए तदनुसार नीतियाँ निर्धारित हों. यही राजनीति का लोककल्याणकारी रूप माना जाता है. पर राजनीति में सारे आदर्श, विचार व नीतियाँ गर सिर्फ सत्ता हासिल करने तक ही सिमट जाएँ तो आदर्श राजनीति की बात बेमानी है. चाहे न चाहे हम राजनीति के इसी दौर से गुजर रहे हैं. आज न तो गाँधी जैसे निःस्वार्थ नेता रहे न वैसे समर्थक. सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसे सफल व निर्णायक आन्दोलन को गाँधी ने सिर्फ इसलिए बंद कर दिया था कि चौरी-चौरा में आन्दोलन का हिंसक रूप उनके अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन था. आज के दौर में ऐसी मिसाल मिलना मुश्किल है. आज तो सत्ता की  राह को आसान बनाने के लिए कुटिल प्रयास  किये जाते हैं, हिंसक परिस्थितियाँ व दंगे प्रायोजित किये जाते हैं. गठबंधन राजनीति के दौर में कब कौन दल किस पार्टी  के साथ नाता जोड़ ले कयास लगाना मुश्