सिद्धान्तहीन राजनीति

राजतांत्रिक  व्यवस्था में लोकमत की उपेक्षा से अकुलाए लोगों ने प्रजातान्त्रिक शासन व्यवस्था को जन्म दिया ताकि लोक-जरूरतों के अनुरूप शासन की नीतियाँ निर्धारित की जाएँ. इस व्वयस्था में लोगों को यह अधिकार मिला की वे स्वयं अपना प्रतिनिधि चुनें जो उनकी आवाज को नीति-निर्धारकों तक पहुँचाए तदनुसार नीतियाँ निर्धारित हों. यही राजनीति का लोककल्याणकारी रूप माना जाता है. पर राजनीति में सारे आदर्श, विचार व नीतियाँ गर सिर्फ सत्ता हासिल करने तक ही सिमट जाएँ तो आदर्श राजनीति की बात बेमानी है. चाहे न चाहे हम राजनीति के इसी दौर से गुजर रहे हैं. आज न तो गाँधी जैसे निःस्वार्थ नेता रहे न वैसे समर्थक. सविनय अवज्ञा आन्दोलन जैसे सफल व निर्णायक आन्दोलन को गाँधी ने सिर्फ इसलिए बंद कर दिया था कि चौरी-चौरा में आन्दोलन का हिंसक रूप उनके अहिंसा के सिद्धांत का उल्लंघन था. आज के दौर में ऐसी मिसाल मिलना मुश्किल है. आज तो सत्ता की  राह को आसान बनाने के लिए कुटिल प्रयास  किये जाते हैं, हिंसक परिस्थितियाँ व दंगे प्रायोजित किये जाते हैं.
गठबंधन राजनीति के दौर में कब कौन दल किस पार्टी  के साथ नाता जोड़ ले कयास लगाना मुश्किल है. सत्ता के इर्द-गिर्द बने रहने की  नेताओं व पार्टियों की मंशा ने पूरी राजतान्त्रिक व्यवस्था को ही खतरे में डाल दिया है.

Comments

  1. बहुत ही सही चित्रण किया है भाई आज की राजनीतिक व्यवस्था का. परंतु इस हालत के लिए काफ़ी हद तक हम और आप भी ज़िम्मेदार हैं. जो बुद्धिजीवी वर्ग है वो मतदान करने जाते नहीं हैं और जो मतदान केंद्र तक पहुँचते हैं वो लोग या तो जातिगत आधार पे मत डालते हैं या फिर किसी प्रलोभन में आकर. ऐसी हालत में जिनको हम अपना प्रतिनिधि बनाकर संसद या विधानसभा में भेजते हैं वो तो किसी सभा की सदस्यता के लायक भी नही होते. फिर कैसी उम्मीद रखना. बदलाव की शुरुआत हमें खुद से ही करनी होगी.

    ReplyDelete
  2. बहुत सही दीपक. कहीं न कहीं इन हालातों के लिए हम ही जिम्मेदार हैं और इसे बदलने के लिए हमें ही सजग होना पड़ेगा.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

सूचना के अधिकार से सशक्त होती महिलाएं

तलाश

गली की सफाई और प्रतिक्रिया