पैसे की दौड़

अक्सर वह मुझसे कहता है कि 'आप आदर्शवादी हैं जो यह कहते हैं की पैसा ही सब कुछ नहीं है जबकि मेरा मानना है की जिन्दगी में पैसा नहीं तो कुछ नहीं. जैसा आप बनना चाहते हैं वैसा होना अच्छी बात है, पर वैसा बना नहीं जा सकता. यदि बनने की कोशिश की जाये तो बहुत कष्ट उठाना पड़ेगा. इसीलिए 'Be प्रक्टिकल'.
मैं जब उसकी बात पर विचार करता हूँ तो लगता है कि उसकी ऐसी सोच इस वर्तमान वयवस्था की देन है. ऐसी सोच रखना उसकी मजबूरी है. इसके लिए मैं उसे गलत नहीं ठहरा सकता हूँ. हमारे समाज में उसके जैसी सोच रखने वाले ही लोगों की संख्या सर्वाधिक है. पैसा.. पैसा और पैसा इसी एक सूत्र के पीछे लोग अपनी सारी प्रतिभा, सारा कौशल, सारा प्रय्तन न्योछावर करने पर उतारू हैं. इसके लिए सारा सिद्धांत सारी नीति, सारी मानवता ग़र्क करने पर उद्धत हैं.
आखिर कितना पैसा कमा कर इन्सान सुखी रह सकता है? क्या इसकी कोई सीमा है? शायद नहीं. यह ऐसी दौड़ है जिसकी कोई मंजिल नहीं. पैसे की भूख ऐसी भूख है जो कभी शांत नहीं हो सकती. इसीलिए इससे संतुष्टि अथवा तृप्ति मिलना असंभव है. फिर भी लोग भागे जा रहे हैं एक दुसरे की देखा-देखी. एक अनजाने सफ़र पर एक अंधी दौड़ में.(१८.७.०३ को लिखित डायरी का अंश )

Comments

  1. कबीर ने कहा था - "साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाय". यहाँ कुटुम्ब से अर्थ आपकी ज़रूरतों से हैं. अब ज़रूरत भौतिक परिधि नहीं बल्कि मानसिक अवस्था है. आप जितना मन को स्वतंत्र छोड़ोगो उतना ही ज़रूरतें ज़्यादा महसूस होगी और ज़्यादा और ज़्यादा प्राप्त करने की इच्छा होगी. अब सवाल ये है कि आज मन को साधना बहुत ही मुश्किल हो गया है. जिसने ये कर लिया वो सत्यतः महागुरु हो गया.

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  2. ठीक कहा दीपक. जब जरूरतों की कोई भौतिक परिधि नहीं होती तो हम ऐसे ही आपाधापी में फंस जाते हैं.

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